लेखक: मोनू रसनिया
पहलगाम में जो कुछ हुआ, वह एक ऐसा जख्म है जिसे शब्दों में बयां करना मुमकिन नहीं।
यह सिर्फ एक हादसा नहीं था, यह इंसानियत पर सीधा वार था।
आज दिल बेहद भारी है... आंखें नम हैं...
इस भीषण दर्द और गुस्से के बीच मैं एक पल रुककर उन मासूम चेहरों के बारे में सोच रहा हूँ,
जिनकी रोजी-रोटी, जिनका भविष्य, उन सैलानियों की हँसी पर टिका था जो पहलगाम की वादियों में मुस्कान लेकर आते थे।
उनकी छोटी-छोटी दुकानों, चाय की टपरी, टट्टू वालों की जिंदगी का एक सहारा अब छिन गया है।
क्या हमारी सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती थी?
क्या ऐसे संवेदनशील पर्यटन स्थलों पर सुरक्षा के और कड़े इंतजाम नहीं होने चाहिए थे?
आज जो फैसले लिए जा रहे हैं, उनका भार भी वही आम गरीब जनता उठाएगी,
जो पहले ही टूट चुकी है, थक चुकी है...
क्योंकि न तो सत्ता के गलियारों में बैठे अमीरों पर इसका कोई असर होगा,
और न ही उन आतंकवादियों पर, जिनके पीछे छुपे हुए लोग उन्हें पालते-पोसते हैं।
असली बोझ फिर से उन बेबस मासूमों पर पड़ेगा,
जिनका कसूर बस इतना था कि उन्होंने बेहतर कल का सपना देखा था।
यह वक्त है अपनी चूकों को पहचानने का।
यह वक्त है आत्ममंथन का —
कहाँ सुरक्षा तंत्र कमजोर रहा? कहाँ लापरवाही हुई?
और सबसे जरूरी —
यह वक्त है उन परिवारों के साथ खड़े होने का, जिनकी जिंदगी का सबसे कीमती हिस्सा उनसे हमेशा के लिए छिन गया।
उनके आंसू हमारे आंसू हैं।
उनका दुख हमारा दुख है।
अगर हमारे भीतर इंसानियत की एक भी किरण बाकी है,
तो हमें मिलकर उनके जख्मों पर मरहम लगाना होगा।
हमें हरसंभव मदद करनी होगी।
यह वक्त नफरत को बढ़ावा देने का नहीं है,
यह वक्त है एक-दूसरे का सहारा बनने का।
पहलगाम की वादियों में फैला यह सन्नाटा,
हम सबके दिलों में गूंज रहा है।
आइए, वादा करें —
इस दर्द को नई उम्मीद में बदलेंगे।
किसी और का घर, किसी और का सपना, यूं न उजड़े — इसके लिए एकजुट होकर आवाज़ उठाएंगे।
इंसाफ मांगेंगे, पर नफरत नहीं फैलाएंगे।
दर्द को ताकत बनाएंगे।
यही होगी उन मासूम जिंदगियों के लिए हमारी सच्ची श्रद्धांजलि।
— ✍🏻 मोनू रसनिया
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