उत्तर प्रदेशबाराबंकी

देवा मेला 2025: सूफी परंपरा और सांस्कृतिक रंगों का संगम — 8 से 17 अक्टूबर तक बाराबंकी में महाउत्सव

बाराबंकी। सूफी संत हाजी वारिस अली शाह की पावन दरगाह पर लगने वाला विश्व प्रसिद्ध देवा मेला 2025 इस वर्ष फिर श्रद्धा, संगीत और संस्कृति के रंगों में डूबने जा रहा है। यह ऐतिहासिक मेला 8 अक्टूबर से 17 अक्टूबर तक आयोजित होगा, जिसमें देशभर से लाखों श्रद्धालु और पर्यटक शामिल होंगे।

मेले का शुभारंभ 8 अक्टूबर को शाम 5 बजे होगा। उद्घाटन कार्यक्रम की मुख्य अतिथि जिलाधिकारी शशांक त्रिपाठी की धर्मपत्नी शैलजा त्रिपाठी होंगी। इस मौके पर प्रशासनिक अधिकारी, स्थानीय जनप्रतिनिधि, कलाकार और धार्मिक संत बड़ी संख्या में उपस्थित रहेंगे। आयोजन स्थल को रोशनी, फूलों और पारंपरिक झंडों से सजाया जा रहा है, जिससे पूरा परिसर सूफियाना माहौल में परिवर्तित हो गया है।

देवा मेला न केवल धार्मिक उत्सव है, बल्कि यह भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब और भाईचारे की मिसाल भी है। यहां हर धर्म और समाज के लोग एक साथ जुटते हैं और “इंसानियत सबसे बड़ा धर्म है” का संदेश देते हैं।

मेले के दौरान प्रतिदिन सूफी संगीत, कव्वाली, मुशायरे और सांस्कृतिक प्रस्तुतियां होंगी। उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग और सूचना विभाग की ओर से विशेष सांस्कृतिक कार्यक्रमों की शृंखला भी आयोजित की जाएगी, जिसमें प्रदेश के विभिन्न जिलों से आए लोक कलाकार अपनी प्रस्तुतियां देंगे।

प्रशासन ने मेले में आने वाले श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए सुरक्षा, यातायात, पेयजल और स्वास्थ्य सेवाओं की विशेष व्यवस्था की है। पुलिस और स्वयंसेवकों की टीम चौबीसों घंटे व्यवस्थाओं पर नजर रखेगी।

देवा मेला का ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व बहुत गहरा है। माना जाता है कि सूफी संत हाजी वारिस अली शाह ने प्रेम, एकता और मानवता का जो संदेश दिया था, वह आज भी इस मेले के माध्यम से जीवित है। यहां आने वाले श्रद्धालु शांति और सुकून का अनुभव करते हैं।

इस बार मेले का आकर्षण सिर्फ धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक भी होगा। यहां हस्तशिल्प बाजार, पारंपरिक फूड जोन, झूले, लोककला प्रदर्शनी और सूफी पेंटिंग गैलरी लगाई जा रही है। महिला समूहों और स्थानीय कारीगरों को अपने उत्पाद प्रदर्शित करने का अवसर दिया जा रहा है, जिससे आत्मनिर्भरता को बढ़ावा मिले।

देवा मेला का मुख्य संदेश है —

“सूफी विचारधारा के माध्यम से समाज में प्रेम, भाईचारा और मानवता की भावना को सशक्त बनाना।”

यह मेला सिर्फ बाराबंकी ही नहीं, बल्कि पूरे उत्तर भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान बन चुका है। हाजी वारिस अली शाह की दरगाह पर गूंजती कव्वालियों की आवाज़ श्रद्धा और एकता का प्रतीक बन जाती है, जो हर आगंतुक के दिल को छू जाती है।

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